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कविता

रहने दो मुझे...

अशोक कुमार


गुज़रे हुए वक़्तों से निकल कर देखा,
आज का दौर अलहदा तो नहीं है !
वो ही आवाज़ के साये वो ही बेशर्म सराब,
आज भी मौजूद हैं कल जैसे ख़राब !
चेहरे ज़रा बदले हैं, नई बात नहीं है !

माना बीते हुए कल से नदामत है मुझे,
ऐसा कुछ भी तो नहीं जिससे अक़ीदत है मुझे,
माज़ी, वले, कुछ भी हो जीने का बहाना है मेरे
इक ख्वाब मुहब्बत का सुहाना है मेरे !
अब वो ही छोड़ के जीना है तो जीना क्या है !

हाँ ज़रा दर्द भी हो लेता है गाहे गाहे,
और जान पे बन आती है तब जब चाहे,
ये भी लगता है के रास्ते बंद हैं सब
और जीने की सजा 'आखिर कब तक' !

पर मेरे दोस्त ये हाल तो माज़ी से भी बदतर है!
इसमें नफरत के उबाले हैं बहुत,
इसमें आहें फ़ुग़ाँ ओ नाले हैं बहुत
जीने के लिए मरने की ज़रूरत है बहुत,

था तो ये पहले भी मगर इतना नहीं था
कुछ का था, टूटा हुआ हर एक का सपना नहीं था
मुझको मेरे माज़ी में फ़ना रहने दो,
मेरी उल्फत मेरे जीने का बहाना है बहुत !


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